संवाद न्यूज एजेंसी, बहराइच
अपडेट किया गया मंगल, 07 मार्च 2023 07:56 पूर्वाह्न IST
श्रावस्ती। आधुनिकता की चकाचौंध में प्राचीन परंपराएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। लोग प्राचीन परंपराओं और सभ्यता को छोड़कर नई परंपराओं को अपना रहे हैं। जिसका असर अब होली पर भी साफ दिखने लगा है। अब होलियारों की टोली गांवों की गलियों में नजर नहीं आ रही है। न ही ढोल की थाप पर फगुआ गीत सुनाई देता है। वहीं, रंगों के बढ़ते चलन में टेसू की महक भी गुम हो गई है। इससे पहले होली के एक पखवाड़े पहले गांवों के चौक चौराहों पर ढोल की थाप पर फगुआ गीत सुनाई दे रहा था। अब ऐसा कुछ नहीं है। परंपराओं की जगह आधुनिकता ने ले ली है। डीजे की बढ़ती लोकप्रियता के बीच अब फगुआ गाना गायब हो गया है। वहीं बाजार में आए तरह-तरह के मिलावटी रंग, गुलाल और अबीर में टेसू की महक चली गई।
यह वह नहीं है जो यह हुआ करता था
अलक्षेंद्र इंटर कॉलेज भिंगा के प्राचार्य ज्योति प्रकाश पाण्डेय का कहना है कि पहले लोगों के घरों में आलू आदि उबालकर जो चिप्स और पापड़ बनते थे वे शुद्ध भी होते थे और स्वादिष्ट भी. प्रमुख दवा विक्रेता तपननाथ तिवारी बताते हैं कि टेसू के फूलों से बनने वाले रंग एंटीबायोटिक होते थे जो त्वचा संबंधी रोगों के लिए रामबाण का काम करते थे। जबकि बाजार में मिलने वाले ज्यादातर रंगों में केमिकल आदि मिलाया जाता है। राधेश्याम ओझा का कहना है कि आज डीजे की तेज आवाज ने लोगों को बेचैन कर रखा है। हारमोनियम और ढोल की थाप पर गाए जाने वाले फगुआ गीत मधुर और मधुर होते थे। वार्ता